Wednesday, July 24, 2013

सफ़र


आज जब इस गुमशुम शाम में ठहरे हुए लम्हों के बीच रुक कर सोचा,
तो जाना की हमने तो ऐसे ही जीना सिखा है, गाना सिखा है, मुश्कुराना सिखा है,
पर रोना नहीं सिखा, ये अदा तो बेवक्त, अनचाहे ऐसे ही आ जाती है.
काश के हम रोना भी सीख लेते तो ये दर्द इतनी ग़मगीन ना होती.

तुमने हमे क्या नहीं दिया, ये जिंदगी उन हसीन लम्हों की ही तो कायल है,
लेकिन वो कहते हैं न की हर सिक्के के दो पहलु होते हैं,
हम ये समझ न पाए की हर हसीं शाम के बाद एक काली रात भी होती है,
वो रात जो मुश्किल है, संघर्षपूर्ण और अनिश्चित है, लेकिन खाली नहीं है.

ये बात नहीं की ऐसी परिश्थितियों का ये पहला मौका हो,
और ये नाव किसी अनजान मजधार में हिलकोरे खा रही हो.
नहीं, हम इस छोटे मायूश टापू पे पहले भी आ चुके हैं,
लेकिन कभी कभी लगता है की तब ये टापू इतनी वीरानी तो नही थी.

सुना तो बहोत है की हर रात की एक सुनहरी सुबह है,
 लेकिन इस रात का क्या, ये भी तो सफ़र का ही एक हिस्सा है. 
 हमे मंजूर नहीं की ये रात बस उन शामो की धुंधली तस्वीर बन कर रह जाये,
 क्युंकी हम तो राही हैं  उस सफ़र के, जो मंजिलों की मोहताज़ नही हुआ करती.